Well what are our demands? |
ये कार्टून्स हिंदुस्तान टाइम्स के हिंदी सिस्टर पब्लिकेशन हिंदुस्तान के अर्थ वाले पन्ने में छपा करते थे .
कहीं से पैसा नहीं आ रहा था . क्योंकि पेंटिंग्स की सेल पर तो जीवन यापन हो सकता नहीं था , अक्सर सूखा पड़ा रहता था . और नौकरी सिस्टम से हम दोनों पति पत्नी बाहर थे . तो पैसा जुटाने के करतबों में कार्टून बनाने का ख़याल आया . शुरू में आसान से दिखने वाले कार्टून भी नहीं बन पाते थे . आडवाणी बनाती थी तो उनका पोर्ट्रेट बन जाता था . फाइन आर्ट का हाथ था आसानी से किसी का भी चेहरा बन जाता था . ऐसे ही , लोग भी आसानी से बन जाते थे मगर वे कार्टून नहीं होते थे . सधा हुआ हाथ था . हाथ बिगाड़ने के लिए मुझे बहुत मेहनत करनी पड़ी . हमारे कार्टून्स की बहुत तारीफ हुई और पैसा भी आया . कार्टून विधा देखने में बच्चों की कला लगती है मगर ऐसा है नहीं . कम से कम रेखाओं में हंसी या व्यंग्य को पिरोते हुए एक दो वाक्यों में बड़ी बात कह जाना कोई बच्चों का खेल नहीं है .
अक्सर फाइन आर्टिस्ट कार्टून और कैरिकेचर नहीं कर पता . और कार्टूनिस्ट फ़ाईनआर्ट नहीं कर पता . ये दोनों विधाएँ एक दूसरे से बहुत भिन्न हैं या यूँ कहें संदेश वाइज़ भी बिलकुल अलग हैं . जहाँ कार्टून की उम्र किसी वक़्त , व्यक्ति या क्षेत्रीयता में सिमित होती हैं वहीँ पेंटिंग्स इन सबसे आज़ाद होती है . उसकी व्याप्ति सार्वभौमिक और हदों से पार होती है . इसके बावजूद कार्टून्स के महत्व को किसी भी तरह से कम नहीं आँका जा सकता .
मैंने कई पत्र पत्रिकाओं में कार्टून्स किये और इस विधा में अपनी पहचान बनाई .
कुछ चुनिंदा कार्टून कटिंग्स कार्टून ब्लॉग में लगा रही हूँ .
उम्मीद है पसंद आएंगे .
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